राज किशोर मिश्र
अन्हार सँ इजोत
नभ सँ ता कि रहल अछि उड़ुगण,
अन्हा र-का जर सँ पो तल वसुधा ,
अवनि क देह पर चढ़ल को ना कऽ,
जहर आसुरी ? ओ छलि दुद्धा ।
एकरे बेओँत मे बैसल अछि ,
ति मि र-षड्यंत्रक अपन जो गा ड़,
उजरा मंत्रक स्वर ओझरा एल,
खो ललक भरम अपन व्या पा र।
फोँ फ कटैत अछि ,मो नक सी धा ,
नि शा चर सा धि रहल नि ज ध्येय,
घुरमी ला गल धवल-तंत्र केँ,
छि पल जो ति को ना हो एत प्रमेय ?
खञ्ज-खो हड़ सन अछि इजो त,
अछि प्रभा ही न, भऽ गेल अथबल,
मो नक को न अधो गति ओक्कर?
दुबकल, बैसल अछि ओ कलबल।
ई करि आ-तंत्रक को नो अनुष्ठा न् ,
जि नगी पर वि ध्नक चलल वा ण।
दि वा जेना अभि शप्त भेल हो अए,
ध्वां त साँ झ मे रहैत अछि काँ च,
अन्हा रक सबतरि सजल मञ्च,
हेतै रा ति का पा लि क ति मि रि आ ना च ।
हो एत उजो र प्रति क्षा रत,
सा मर्थ्य क फेर करत संधा न,
दुनि आँ ओकर भरो से सूतल,
करत नव दि नक अनुसंधा न।
एही अन्हा र मे गम्हरा एल ,
भी तरे-भी तर इजो त,
ति मि र-जलधि मे फेरो सँ,
उतरत को नो पो त ।
अन्हा रक सघन बो न मे,
गमकत जो ति क चा नन ,
सरसि ज सूँघत अरुण-कि रि न,
चमकत वसुधा -आनन।
इजो तक धवल शृङ्गा र सँ,
क्षि ति जक सजत पुबरि आ मुह,
संघर्षक सि नुरि आ अङ्गरा ग सँ,
पो छल देखि , खग बा जत 'कूह'।
प्रका शक महा समुद्र मे,
तमि स्त्रा क अस्थि -वि सर्जन,
आएल ओ बेर, अरुणा भ सँ,
सृष्टि -उदयक हो एत सर्जन।
नभ मे इजो तक कोँ ढ़ी फूटल,
अन्हा रक का री का जर छूटल ।
पुनर्स्था पि त उद्यो त मे,
अन्हा र-प्रलय सँ उबरल धरणी ,
जि नगी क नवल दि वसक सृजन,
ति मि रक भेल गो दा न-वैतरणी ।
करि आ-झुम्मड़ि खूब खेला एल,
का लक को नो तंत्र,
समयक को नो मुह अछि चमकल,
उत्था नक ई मंत्र ।
दि वसक उज्जर दप -दप आनन,
पा ड़ल ओहि पर इजो तक चा नन।
पाँ खि खो लि नभ मे उड़ल अछि ,
बढ़ल दूर खगरा ज,
सुनबैत व्यो म केँ ,भि नसर ई,
तमि स्त्रा सँ भेटल स्वरा ज।
भो रक सौं दर्य-र्य पसा हनि मे,
ला गल अछि खि लल प्रसून,
ऊर्जा -पा ग मे बो ड़ल अछि ,
अछि मि ठगर का ल्हि सँ दून।
डूबि क' दि वा ऊगल अछि ,
अनुभवक ठेढ़ पर ठा ढ़ ,
दि वस जि अत जि नगी पूर्ण,
बुझि तहुँ आओत अन्हा र।
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