आशीष अनचिन्हार-मोट साहित्य

(मैथिली गजल विशेषज्ञ, मैथिली वेब पत्रकारिता विशेषज्ञ, ब्लॉगर, शोधकर्ता, आलोचक, संपादक। संपर्क-8134849022)
मोट साहित्य
कहल जाइत छै जे दरभंगा महाराज एक समयक बाद अतेक मोटा गेल छलाह जे हुनका दैनिक काज करबामे सेहो परेशानी होइत छलनि। आ तकरा सुचारू रूपसँ चलेबाक लेल ओ विभिन्न लोक सभकेँ नौकरीपर रखलाह। हुनक दैनिक काजमे आन जे काज सभ छल से अहाँ सभ अनुमान करू मुदा एकटा काज 'वायुत्याग' सेहो छल। महाराज केर देह अतेक भारी जे हुनका 'वायुत्याग' काल असुविधा होइन आ ताहि लेल ओ दू आदमी नौकरीपर रखलाह। महाराजकेँ जखन 'वायुत्याग' केर इच्छा होइत छलनि ओ ओहि दू नौकरकेँ इशारा करैत छलखिन, ओ दूनू नौकर हुनकर टाँग उठबैत छल आ तखन महाराज 'वायुत्याग' करैत छलाह। बड़का लोक बड़का बात। लोक एकरे रईशी कहैत छै। मुदा ई रईशी छलै वा कि कष्ट? से के कहत।
प्राचीन समयमे मोटेनाइकेँ धनसँ जोड़ल जाइत छलै। जे जतेक धनी से ततेक मोटाएल कारण ओकरा कोनो शारीरिक काज करहे नै पड़ैत छलै। मोट लोक लेल साधारण जनता कहै छलै 'मोटेनाइ' खाए-पीबऽ बला परिवारक निशानी छै। मने प्राचीन समाजमे 'मोटेनाइ' गर्वक बात छल। एहन नै जे प्राचीन कालमे सभ 'मोटेनाइ' 'केँ नीक मानै छलै। भने एकै आदमी हो मुदा ओ एकदम प्राचीनो कालमे जागरुक छल आ कहबी बनेलक "मोट देखि डरू नै, पातर देखि लड़ू नै"। माने प्राचीन कालक ओ एक जागरूक लोक मोटाइ केर भीतरक कमजोरीकेँ जानि लेने छलाह, ओकर ओहि कष्टकेँ जानि लेने छलाह जकरा मोट लोक सभ अपन धनसँ झाँपि लेबाक लेल बाध्य छलाह। मुदा जेना-जेना समाज बदललै 'मोटेनाइ'केँ रोग-बेमारी मानल जाए लागल। जनता जागरूक भेल। मोट लोक सभ पातर हेबाक लेल जिम-कसरत केर सहारा लेबऽ लागल। भोरमे भ्रमण करबऽ बला संख्या बढ़ि गेल। भोजनपर कंट्रोल होबऽ लागल। मने जागरुकता एलै। ओना जागरुकताक क्रममे ईहो देखल गेल जे किछु लोक अति जागरुकताक उत्साहमे 'जीरो फीगर' लेल व्याकुल भऽ जाइत छथि जकर परिणाम खरापे होइत छै।
से समाजक आन वर्ग जतेक जागरुक भेल हो मुदा मैथिली साहित्यिक वर्गक अधिकांश लोक कनियों जागरुक नहि भेल अछि। एहि साहित्यिक समाजमे एखनो पोथी वा कि पत्रिकाक मोटाइ लऽ कऽ भ्रम अछि। जाहि पोथी, संपादित पोथी वा पत्रिकाक लेखक-संपादक जतेक स्थूल बुद्धिक हेताक से पोथी-पत्रिका ओतबे मोट हेबाक संभावना बढ़ि जाइत छै। आ ओ लेखक-संपादक अपन समाजमे ओहि मोटाइकेँ देखा कऽ नितराइत रहैत छथि, ओकरे सर्वोपरि मानि साहित्यिक समाजमे अपन भीतरी कमजोरीकेँ नुकबैत रहैत छथि। मुदा मैथिली साहित्यिक वर्गमे कहियो कियो एकै आदमी सही जागरूक रहले हेताह, तँइ ओ कहबी बना कऽ चलि गेलाह "भुसकौल विद्यार्थीक गत्ता मोट"। माने ओ एक साहित्यिक लोक 'मोट-मोट पोथी-पत्रिका'क भीतरिया कमजोरी अकानि लेने छलाह जकरा नुकाबऽ लेल भुसकौल लेखक-संपादक अपन पद-प्रतिष्ठा, संबंध आदिक सहारा लेने घुमैत छथि। हुनका बुझा गेल छलनि जे मोट-मोट पोथी-पत्रिका मात्र गर्वक विषय छै एहिसँ समाजक कल्याण नहि भऽ सकैत अछि।
जाहि पत्रिकामे संपादक मंडलमे जतेक नाम भेटत तही अनुपातमे ओहि पत्रिकाक वैचारिक स्थूलता बढ़ैत चलि जाइत छै। मोट पोथीमे कोनो नव विचार कदाचिते भेटत। अभिनंदन ग्रंथमे सेहो संपादकक संख्या बढ़ि जाइत छै आ ताही संगे ओहिमे वैचारिक स्थूलता सेहो। जेना धनी लोक अपन मोटापा नुकाबऽ लेल ढिल्ला अंगा-पैंट धारण करऽ लगैए तेनाहिते बेसी संपादक बला अभिनंदन ग्रंथक ऊपर "आलोचनात्मक', वा एहिसँ मिलैत-जुलैत भाव बला शब्द युग्म लीखऽ लागैत छथि।
इम्हर किछु लेखक-संपादक एकै विषय, एकै आदमीपर ओतबो पन्ना सभकेँ खंड-खंडमे बाँटि दै छथि जे एक पोथीमे आबि सकै छै। जे पोथी जतेक खंडमे प्रकाशित हएत ओकरा एवं ओहिसँ संबंधित लेखक-संपादककेँ बुझाए लागैत छनि जे हम बहुत महान। मुदा पाठक जखन ओहि पोथी सभकेँ लऽ पढ़बाक प्रयास करैत छै तँ कोनो नव बात नहि भेटैत छैक जाहिसँ ओ सीखि सकए, कोनो नव खिड़की नहि खुजैत छै जाहिसँ ओ नव दृश्य देखि सकए, कोनो नव चमत्कार नहि भेटैत छै जकरा अकानि ओ आनंदित हुअए। एकै विषय, एकै आदमीपर खंड-खंडमे बाँटल पोथी "खंडित प्रतिमा" सन बनि कऽ रहि जाइत छै।
कोनो कालखंडमे कदाचित् एकटा छह-फिट्टा पोथी-पत्रिका देखाइ पड़ि जाइत छै जकर देहपर मोटापा शोभै छै आ ओकर मानसिक स्वास्थ्यक प्रतीक सेहो बनि जाइत छै, मुदा स्थूल-बुद्धि साहित्यसँ भरल समाजमे ओहन छह-फिट्टाक आयु होइते छै कतेक? जेना मोट आदमीक देह दूरेसँ देखाइ पड़ि जाइत छै तेनाहिते मोट साहित्य केर एहन प्रचार-प्रसार होइत छै जे स्वस्थ साहित्य ओझल भऽ जाइत छै। दोसर शब्दमे मोट साहित्यक विकराल देहक पाछूमे स्वस्थ साहित्य बिला जाइत छै।
विडंबना जे ई साहित्यिक वर्गमेसँ बहुतो लोक एखनो धरि जागरुक नहि भेलाह अछि। साहित्यिक व्यायाम करबाक आदति एखनो धरि नहि लगेलाह अछि। एकर परिणाम ई भेल जे समाजक आन वर्गसँ साहित्यिक समाजक दूरी बढ़ि गेलै। साहित्यिक समाज मात्र अपनेमे समेटा गेल, आन वर्गसँ कोनो मतलब नहि। तँइ समाजक आन वर्ग साहित्यिक बातसँ कोनो सरोकार नहि रखने अछि आ ने अपन बाल-बच्चाकेँ सरोकार राखऽ दैत छै। किछु दिनक बाद देखबै जे एहि साहित्यिक समाजमे मात्र स्थूल बुद्धिए बलाक सखा-संतति सभ एतै आ ओकरे वृद्धि हरेक युगमे होइत रहतै। स्वस्थ आ फिट साहित्यिक बुद्धि बला लोक आन क्षेत्रमे अपन महत्व कायम करत। हँ, एक-दू लोक जागरुक भेल छथि मुदा स्थूल बुद्धि साहित्यिक समाजमे ओहि कतिपय जागरुकपर एहन दबाव बनि जाइत छै जे ओ जागरुक सभ 'पलिटिक्ली करेक्ट' बनि जाइत छथि आ अंततः हुनको साहित्य जनताक नजरिमे कूड़े साबित होइत छै।
ओना अंतिम कालमे मोट लोक आ स्थूल साहित्य केर "गति" एकै होइत छै।
मोट लोकक मरलाक बाद ओकर अर्थी उठेबा लेल बहुत लोक तैयार नहि होइत छनि। परिवारो मजबूरिएमे उठाबैत छनि। उठेलाक बाद संस्कारक समयसँ लऽ बादक समय धरि सभहक बीच ओतबे चर्चा जे धुर अते कहीं मोट लोक हुअए। सदिखन ओकर मोटाइ केर खिधांश। मोट लोकक संस्कारमे समय सेहो लगैत छै, ताहू डरे लोक संस्कारमे जाइयो नहि चाहैत छथि। तेनाहितो मोट साहित्य जखन पाठकक हाथमे जाइ छै तखन पाठक सोचमे पड़ि जाइत छथि जे केखन पढ़ब? कोना पढ़ब, कहिया धरि पढ़ब? आ अही सोच विचारमे पाठक उक्त पोथीकेँ पढ़ि नहि पाबै छथि। अधिकांश पाठक स्थूल साहित्य केर स्थूल दाम देखिए भागि जाइत छथि। किछु आप्त लोक मजबूरीमे ओहि मोट स्थूल साहित्यपर अपन टिप्पणी बेमनसँ दऽ दैत छथि मात्र संबंध बचेबाक लेल।
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