प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका

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१.११.डॉ.आभा झा-कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे

डॉआभा झा

(संस्कृतक शिक्षिका, विद्वान एवं समीक्षक)

कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे

कहल गेल छैक-प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोSपि प्रवर्तते। अर्थात् एहि संसारमे कोनो काज निरुद्देश्य नहि कएल जाइत अछि। प्रत्येक काज जकाँ साहित्य सृजन वा समालोचना सेहो उद्देश्यपूर्ण होइत छैक। धन-वैभवक प्राप्ति, यशक लिलसा, जीवन-व्यवहारक शिक्षा, अनिष्टक नाश, कान्तासम्मित उपदेश आ चरम काव्यानन्दक प्राप्ति आदि एकर प्रयोजन मानल गेल छैक। यद्यपि किछु पश्चिमी समालोचक आ हुनकासॅं सहमति रखनिहार लोक कला कलाक लेल जकाँ साहित्य साहित्य लेल सेहो कहैत-मानैत छथि, मुदा व्यावहारिक रूपमे प्रत्येक कवि-लेखक कोनो ने कोनो उद्देश्य मनमे राखिए क साहित्य- सृजनमे प्रवृत्त होइत छथि। आइ जखन आचार्य मम्मटेक काव्य- प्रयोजनसॅं गप आरंभ कएलहुँ अछि, तकर कारण अछि जे सोझॉं मे अछि संस्कृत आ मैथिलीक निविष्ट विद्वान् आदरणीय भवनाथ झाक भ्रूणपञ्चाशिका। त जेना कि नामे सॅं स्पष्ट छैक एहिमे पचास गोट श्लोक छै आ विषय-वस्तु थिकै भ्रूण। भ्रूण त भ्रूण थिकै, ओकर लिङ्ग जनबाक इच्छा, जानि क ओकरा जीवित रखबाक अथवा नहि रखबाक निर्णय स्वयंमे प्रकृतिक कार्यक्षेत्रमे अवाञ्छित हस्तक्षेप थिकै आ अतिशय निन्दनीय ! कविवर एहि प्रसंगमे जन-जागृति अनबा लेल, लोकक मनोग्रंथि दूर करबा लेल गर्भस्थ सुताक मनोलोकमे प्रवेश करैत छथि आ पचास टा सरस -प्राञ्जल श्लोकक माध्यमसॅं एकटा सुंदर आ उपादेय प्रबन्धकाव्यक सृजन करैत छथि। जे कि सोझे सोझ उपदेश सुनबा लेल केओ तैयार नहि होइत छैक, तेँ कवि काव्यरसक चाशनीमे बोरि सत्यक करैल परसैत छथि, स्वर-लयक सुगन्धियुक्त सुंदर शब्दक माला गाँथि एकटा प्रबन्धकाव्य रचैत छथि। एहि प्रसंगमे इहो कहैत चली जे संस्कृतभाषाक अहैतुक विरोधी सभ संस्कृतक एकहु टा प्राचीन-अर्वाचीन पोथी बिनु पढ़नहि एहि सुसंस्कृत, परिमार्जित, ज्ञानकोशक भण्डार भाषाकेँ कर्मकाण्डीय भाषा, मृत भाषा, मनुवादक पोषक भाषा, आजीविका नहि देनिहारि भाषा, आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति आ प्रविधिसॅं दूर भाषा आदि आक्षेप लगबैत अपन कल्पित- विकसित दुनियामे मगन रहैत छथि। एतय हमर अभीष्ट वैदिक अथवा उपनिषद् कालीन उद्धरण दए पाठक लोकनिक समयक अपव्यय करब नहि अछि, हमर उद्देश्य अछि ई कहब जे आइयो संस्कृत भाषामे पठन-लेखन भए रहल छै आ ओहि सभ विषय पर खुलि क कलम चलि रहल छै, जाहि पर लिखब आजुक जरूरति छैक।

एकटा गंभीर चिन्तकक मनमे ई गप आयब स्वाभाविके जे पुत्र आ पुत्री दुहू संतति होइत छैक आ दुहू माइ लेल एक रंग। कोनो समयमे जे बेटी सरस्वती, दुर्गा आ लक्ष्मीक रूपमे समादृत छलीह, शस्त्र-शास्त्रक समानरूपसॅं शिक्षा लैत छलीह, समाजक प्रत्येक कार्य-व्यवहारमे अपन सशक्त भूमिका निमाहैत छलीह, ओएह बेटीक विषयमे एकटा कालखण्डमे कहय गेल जाइ लगलै जे बेटीक जन्म होइ छै त धरती एक हाथ निच्चा धँसि जाइत छैक। सभकेँ पुत्र-रत्नक इच्छा होमय लगलै, पुत्रीक नहि। मुदा प्रकृति त ककरो चाहने वा नहि चाहने सृष्टि रचैत नहि अछि, ओ समस्त चराचर जगत् आ सभ प्राणीक अस्तित्वमे संतुलन लेल दुहूक सृष्टि करैत अछि। विज्ञानक भाषामे शिशु-जन्मकेँ एहि तरहेँ  परिभाषित कएल जाइत छैक जे एक्स आ वाइ क्रोमोजोमक मेलसॅं पुत्र आ एक्स आ एक्सक मेलसॅं पुत्रीक जन्म होइत छैक। एहि तरहेँ  जे कि स्त्रीक लग मात्र एक्स क्रोमोजोम होइत छैक आ पुरुषक लग एक्स आ वाइ दुन्नू, तखन संयोगवशात् (ककरो वश नहि जे हम बेटे उत्पन्न करब वा बेटिए) मुख्य कारणो पुरुषे रहैत अछि। मुदा समाजकेँ बेटी त चाही नहि। जे कि किछु प्रान्तकेँ छोड़ि देल जाय त' भारतीय समाज पितृसत्तात्मक छैक तेँ सभटा कुरीतिक छार-भार सेहो पुरुषेक कपार पर। मुदा एहि ठाँ प्रश्न जरूर उठैत छैक कि जे स्त्री मातृत्व सन महनीय दायित्व उठैबामे समर्थ होइत अछि, ओ एहि तरहक निर्णयक बेरमे एतेक दुर्बल किऐक भए जाइत अछि? गर्भ ओकर शरीरमे, ओकर रक्तमज्जासॅं पोसा क शिशुक रूपमे धरती पर अबैत अछि आ ओहि गर्भक हेतु मात्र होयबाक कारणे पिताकेँ ई अधिकार कतयसॅं भेटि जाइत छैक जे ओकर अस्तित्व मेटा सकय!

कहबाक अभिप्राय ई जे एहि कुरीतिक पसारमे, एहि जघन्य अपराधमे स्त्री आ पुरुष दुहू बराबर दोषी छथि। जखन पुत्रप्राप्तिक अदम्य लिलसा एकटा मनोग्रन्थिक रूप लैत छैक त विचार कलुषित भए जाइत छैक आ बहुत रास कन्या-भ्रूण जन्म लेबासॅं वञ्चित भए जाइत अछि। यैह कारुणिक स्थिति एहि प्रबन्धकाव्यक आधार अछि। प्रत्येक पद्यमे अनुस्यूत संदेश, कुत्सित-त्याज्य मनोभावकेँ जड़िसॅं उखाड़बाक आह्वान, स्त्रीक अन्तर्निहित शक्तिक साक्षात्कारक उद्बोधन आ समाजक संतुलन आ समरसताक आग्रहकेँ समेटने एहि पोथीकेँ कविक दृष्टिसॅं देखबाक प्रयास करैत छी -

 

जननि जननि मातर्गर्भलग्ना सुताहं
नहि नहि कुलदीपो नन्दनः क्लेशहारी।
इति पितरि मदीये ज्ञापिते वैद्यकेन
विदलनचतुरेण श्व: निपातो हि मे स्यात्।
(
श्लोक-3)

 

कविक संवेदनशील हृदय मनुष्यताक ई चरम क्षरण देखि आहत-व्यथित अछि आ ओ ओहि मायकेँ प्रबोधित करबा लेल गर्भस्थे शिशुसॅं कहबाबै छथि जे हे जननी! अहाँ किऐक अपन नामकेँ निरर्थक बना रहल छी? अहाँ निष्क्रिय बैसल छी आ पिता निर्णय लए लेलनि अछि। जे कि हम कुलदीपक नहि छीतेँ काल्हिए हमर खिस्सा खतम भए जायत! आहा! की करुणोत्पादिका अभिव्यक्ति अछि!

स्वपिति तव सकाशे भ्रातृपादो ममैव
कुलगृहमणिदीपो नन्दनो दुःखहारी।
जननि हि करमूलं मण्डितं का प्रकुर्या-
दहह नभसि पूर्णे तस्य रक्षानुबन्धैः।
(
श्लोक-13)

कवि अधोलिखित श्लोकक माध्यमसॅं कवि-धर्मक निर्वाह करैत ओही बेटीक मुखसॅं प्रश्न करबैत माताक संग संग संपूर्ण समाजक चेतना झकझोरि भावी समस्या दिशि दृष्टि दिऐबाक प्रयास करैत छथि जे जॅं एहि तरहेँ पुत्रीकेँ अवाञ्छित बूझि हत्या करैत रहब तखन के अहाँक बेटाकेँ राखी बान्हत? ओहि शून्यताक कल्पना त करू। एतबहि नहि, अहाँक कुलदीपककेँ पत्नी कतयसॅं भेटतनि? की रोबोटसॅं विवाह करायब अपन पुत्रक? लैङ्गिक असन्तुलनक कारण समाज केहन भयावह स्थितिमे जायत तकर कल्पना त करू!

वद जननि जगत्यां कन्यकाभ्रूणहत्या
प्रतिगृहमपि नारीं यद्यरोत्स्यत्समन्तात्।
प्रियतरसुतजायां तेन यन्त्रोद्भवाञ्च
कथमिव सममेलिष्यस्तु रोबोटरूपाम्।
(
श्लोक-15)

माताक अन्तर्मनमे साहस आ शक्तिक संचार करैत, ओकर मनक दौर्बल्य आ भ्रान्तिकेँ दूर भगबैत स्त्रीक योगदान सेहो मोन पाड़ैत कवि ओहि बेटीक मुखसॅं कहबैत छथिन-

गणयसि कथमम्बेमां सदा दुःखरूपां
स्मर हिमपतिकन्यां शुम्भहन्त्रीञ्च दुर्गाम्।
पठितसकलशास्त्रां पण्डितामेव गार्गीं
दशरथरथयन्त्रीं प्रेयसीं वा कनिष्ठाम्।
(
श्लोक-16)

कवि कन्याक ब्याजसॅं स्त्री- चेतनाकेँ झकझोरि रहल छथि, अकर्मण्यता आ बेचारी- अबलाक तगमाक कारासॅं मुक्त होयबाक ओकालति करैत छथि, अन्यायक विरोध लेल उत्प्राणित करैत छथि आ सही निर्णय लेबाक आह्वान करैत छथि -

वद जननि किमस्मिन् गर्भगे तेऽधिकारो
रुधिरपिशितपुष्टे स्वाङ्गभूते वसाक्ते।
वद कथमसि तूष्णीमद्य नो चेदशक्ता
क्षुरमपि निशिताग्रं वीक्ष्य लोलं पुरस्तात्।
(
श्लोक-32)

दैन्यक परित्यागक आह्वान लेल अधोलिखित श्लोक से ध्यातव्य अछि -

सुरपतिदिशि पश्य प्रसृतामंशुराशिं
निविडतिमिरपुञ्जं गञ्जयन्तीमिदानीम्।
परिहर भयमेवं जागृहि प्रातरस्मि-
न्नपनय निजदैन्यं रक्ष मां धात्रि! चण्डात्।
(
श्लोक-33)

आह! कतेक करुण प्रार्थना थिकै ओहि बिनु जनमल कन्याक जे हे माइ! हमहूँ एहि धरती पर पएर धर चाहै छी, सूर्यक किरणसॅं तप्त भेला पर चानक चांदनीमे स्नान करय चाहै छी, सरपट दौड़य चाहै छी आ चिड़ैक संग गीत गाब चाहै छी! आह! केहन स्वाभाविक इच्छा आ तकर एहन मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति !

अहमपि रसवत्यां धर्तुमिच्छामि पादौ
तपनकिरणतप्ता शीतले स्नातुमब्जे।
परिमलितसमीरे संव्रजन्ती विदिक्षु
सह विहगकुलैर्वा वाश्यमाना सुगीतिम्।
(
श्लोक-43)

एहि काव्यक सभटा श्लोक मालिनी छंदमे रचल अछि। एकर लक्षण थिकै ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः। ‘“नगण नगण मगण यगण यगण। एहि छंदक प्रत्येक चरणमे 15 वर्ण होइत छैक। ई एकटा सम वर्ण वृत्त छंद थिकै, जाहिमे प्रत्येक चरणमे दू '' गण (न न न यानी तीन लघु वर्ण) एक मगण (म म म यानी तीन गुरु वर्ण), आ अंतमे दू यगण (य य य यानी तीन लघु वर्ण) अबैत अछि। आठम आ सातम वर्ण पर यति (विराम) होइत छैक।

अन्तमे एतबहि जे ई छोट सनक काव्य मानवताक गम्य मार्गक निदर्शन थिक, कन्याभ्रूण हत्या सन जघन्य अपराधमे लिप्त सामाजिक सोच आ ताहि कारण पापी बनल माता-पिताकेँ सुन्न सपाट स्त्री विहीन समाजक विरूप चेहरा देखा सावधान करैत छैक ई कहैत जे आबहु ठहर, नैसर्गिक काजमे हस्तक्षेप नहि कर, संतानमात्रक स्वागत लेल मनोभूमि बना! कविक एहि उत्कृष्ट कृति हेतु अभिनन्दन!

 

संपादकीय टिप्पणी- 2010 मे बेचन ठाकुरक नाटक "बेटीक अपमान आ छीनर देवी" केर भूमिकामे आशीष अनचिन्हार द्वारा बिहार सहित भारतक आन राज्यक लिंगानुपात समस्या केर विस्तृत विवरण अछि। पाठक पोथीक शीर्षकमे देल गेल लिंकसँ पोथी डाउनलोड कऽ सकैत छथि।

 

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